सविनय अवज्ञा आन्दोलन – 1928 ई० में साइमन कमीशन के विरोध व 1929 ई० में कांग्रेस द्वारा ‘पूर्ण स्वराज्य’ की माँग रखे जाने के समर्थन में गाँधी जी के नेतृत्व में यह आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। 12 मार्च, 1930 ई० को गाँधी जी ने अपने 78 समर्थकों के साथ ‘नमक कानून’ को तोड़ने के लिए इतिहास-प्रसिद्ध ‘दांडी यात्रा’ अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से प्रारम्भ की।
अंग्रेजी सरकार ने दमन चक्र चलाया और 6 अप्रैल, 1930 ई० को गाँधी, नेहरू सहित सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिये गये। गिरफ्तारी के प्रतिक्रियास्वरूप विदेशों वस्त्रों को जलाया गया। पेशावर में भारतीय सैनिकों ने क्रान्तिकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इसी बीच चटगाँव में क्रान्तिकारियों ने सरकारी हथियारखाने को लूट लिया। इस आन्दोलन से सरकार भयभीत हुई और अन्ततः जनवरी, 1931 ई० में गाँधी जी सहित कुछ नेता रिहा कर दिये गये। मार्च में गाँधी-इरविन समझौता हुआ, जिसके अनुसार गाँधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का कार्यक्रम इस प्रकार था:
(1) नमक कानून तथा अन्य ब्रिटिश कानूनों का विरोध।
(2) कानूनी अदालतों, सरकारी स्कूलों, सरकारी समारोहों का बहिष्कार।
(3) भू-राजस्व, लगान, अन्य करों की अदायगो पर रोक।
(4) शराब तथा अन्य मादक पदार्थों की दुकानों पर धरना।
(5) विदेशी वस्तुओं एवं वस्त्रों का बहिष्कार।
(7) राजनीतिक बन्दियों को कारावास से मुक्त कराना।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रथम गोलमेज सम्मेलन (12 नवम्बर, 1930 ई०)
सविनय अवज्ञा आन्दोलन – साइमन कमीशन के द्वारा भारतीय समस्याओं को सुलझाने के लिए गोलमेज सम्मेलन का सुझाव दिया गया था। समझौते के प्रयत्न असफल होने पर सरकार ने लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया। इसका उद्घाटन 12 नवम्बर, 1930 ई० को लन्दन में ब्रिटिश सम्राट द्वारा किया गया और सम्मेलन की अध्यक्षता प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनल्ड ने की।
सम्मेलन में कुल 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया; जिनमें से 3 ग्रेट ब्रिटेन; 16 भारतीय देशी रियासतों और शेष ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि थे। ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को गवर्नर जनरल के द्वारा ही मनोनीत किया गया था। ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों में सर तेजबहादुर सप्रू,
श्रीनिवास शास्त्री, डॉक्टर जयकर, सी० वाई० चिन्तामणि, डॉक्टर अम्बेडकर जैसे व्यक्ति थे। देशी रियासतों के प्रतिनिधियों में अलवर, बीकानेर, भोपाल, पटियाला तथा बाड़ीदा के राजा और ग्वालियर तथा मैसूर राज्य के प्रधानमन्त्री सम्मिलित थे, किन्तु सम्मेलन में उपस्थित व्यक्तियों को आरत की 40 करोड़ जनता का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि सम्मेलन में भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था कांग्रेस ने अपना कोई प्रतिनिधि नहीं भेजा था।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रथम गोलमेज सम्मेलन का सुझाव
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रैम्जे मैकडोनल्ड ने अपने प्रारम्भिक भाषणों में उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिनके आधार पर सम्मेलन को विचार करना था। उनका कहना था –
1. संघ शासन– भारत के नवीन विधान का निर्माण शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश प्रान्त व देशी रियासतें इस संघ शासन की इकाई का रूप धारण करेंगी।
2. संरक्षणों सहित उत्तरदायी शासन – नवीन व्यवस्था के अन्तर्गत प्रान्तीय और केन्द्रीय क्षेत्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना की जायेगी, किन्तु केन्द्रीय क्षेत्र में सुरक्षा और वैधानिक विभाग भारत के गवर्नर जनरल के अधीन होंगे।
3. अन्तरिम काल में रक्षात्मक विधान– अन्तरिम काल की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए कुछ रक्षात्मक विधान रखे जायेंगे।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रमुख राजनीतिक बन्दियों की मुक्ति
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– ब्रिटिश शासन के द्वारा अब तक इस तथ्य को समझ लिया गया था कि राष्ट्रीय कांग्रेस के सहयोग बिना भारत की कोई भी समस्या हल नहीं हो सकती। इसलिए समझौते का मार्ग प्रशस्त करने हेतु वायसराय ने महात्मा गाँधी और कांग्रेस कार्यसमिति के 19 सदस्यों को मुक्त कर दिया।
गाँधी-इरविन समझौता – प्रथम गोलमेज सम्मेलन से लौटने के बाद सर तेजबहादुर सप्पू और डॉ० जयकर ने अपने मध्यस्थता प्रयत्न फिर से प्रारम्भ कर दिये। इन मध्यस्थता प्रयत्नों के परिणामस्वरूप 17 फरवरी को महात्मा गाँधी और लॉर्ड इरविन की बातचीत प्रारम्भ हुई, जो 5 मार्च तक चलती रही। गाँधी-इरविन बातचीत के परिणामस्वरूप 5 मार्च, 1931 ई० को यह समझौता हुआ, जो इतिहास में गाँधी-इरविन समझौते के नाम से विख्यात है।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के इस समझौते के अनुसार सरकार ने निम्न आश्वासन दिये :
(1) उन हिंसात्मक कार्य करने वाले अपराधियों को जिन पर अपराध सिद्ध हो चुका है, छोड़कर अन्य राजनीतिक बन्दियों को मुक्त कर दिया जायेगा।
(2) वह सभी अध्यादेशों और चालू मुकदमों को वापस ले लेगी।
(3) आन्दोलनों के दौरान जब्त सम्पत्ति उनके स्वामियों को वापस कर देगी।
(4) सरकार ऐसे लोगों को बन्दी न बनायेगी, जो शराब, अफीम तथा विदेशी बस्त्र की दूकानों पर शान्तिपूर्ण पिकेटिंग करेंगे।
(5) वह समुद्र तट से एक निश्चित दूरी में रहने वाले लोगों को बिना किसी कर के नमक इकट्ठा करने तथा बनाने देगी।
(6) जो जमानतें और जुर्माने अभी वसूल नहीं हुए हैं, उन्हें वसूल नहीं किया जायेगा और अतिरिक्त पुलिस वापस ले ली जायेगी।
(7) जिन सरकारी नौकरों ने आन्दोलन के समय नौकरी से त्याग पत्र दे दिये थे, उन्हें नौकरी में वापस लेने में सरकार उदार नीति अपनायेगी।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन कांग्रेस की ओर से महात्मा गाँधी ने निम्न बातें स्वीकार कीं :
(1) कांग्रेस अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित कर देगी।
(2) कांग्रेस अपनी इस माँग को त्याग देगी कि आन्दोलन के दौरान पुलिस के द्वारा जो ज्यादतियाँ की गयीं, उनकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए।
(3) कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
(4) कांग्रेस ब्रिटिश माल के बहिष्कार का राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग नहीं करेगी।
(5) कांग्रेस द्वारा यह समझौता न माने जाने पर सरकार शान्ति और व्यवस्था के लिए आवश्यक कार्यवाही करने हेतु स्वतन्त्र होगी।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन – लॉर्ड विलिगटन का वायसराय बनना शासन द्वारा समझौते का उल्लंघन – 17 अप्रैल, 1931 ई० को लॉर्ड इरविन के स्थान पर लॉर्ड विलिंगटन भारत के वायसराय नियुक्त हुए और उन्होंने गाँधी-इरविन समझौते को भंग करना शुरू कर दिया। पुलिस द्वारा सभाएँ भंग करने, कांग्रेस कार्यकर्ताओं के घरों पर छापा मारने, स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करने और राष्ट्रीय झण्डे जलाने को घटनाएँ पूरे जोर-शोर पर शुरू हो गयीं। ऐसी स्थिति में महात्मा गाँधी ने सोचा कि वे अपनी प्रस्तावित लन्दन यात्रा शुरू
कर दें। 27 अगस्त, 1931 ई० को गांधीजी ने वायसराय से भेंट की। इस भेंट में वायसराय ने गाँधीजी से आग्रह किया कि वे स्थायी शान्ति का मार्ग निकालने के लिए सम्मेलन में भाग लें। अन्त में गाँधीजी ने 29 अगस्त को कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लन्दन के लिए प्रस्थान किया।
राष्ट्रवादियों को राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग रखने के लिए कालापानी की सजा दी जाती थी। अण्डमान निकोबार द्वीप समूह कालापानी के नाम से जाना जाता था, जहाँ छोटी-छोटी कोठरियाँ होती थीं और वन्दियों को अनेक अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। कालापानी की सजा देश निकाला तथा आजीवन कारावास की कठोरतम सजा थी।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (7 सितम्बर, 1931 ई०)
सविनय अवज्ञा आन्दोलन – द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 ई० को प्रारम्भ हो गया था, किन्तु महात्माजो 12 सितम्बर को लन्दन पहुँचे। इस समय तक इंग्लैण्ड को राजनीतिक स्थिति बहुत परिवर्तित हो गयी थी। रेम्जे मैकडोनल्ड यद्यपि अब भी प्रधानमन्त्री थे, किन्तु वे एक राष्ट्रीय मन्त्रिमण्डल के प्रधान थे, जिसमें अनुदार और उदार दल के सदस्यों की प्रधानता थी। सर बेजवुड बेन जो पक्के टोरी थे, भारत-मन्त्री नियुक हुए थे। अक्टूबर में इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कामन्स के जो निर्वाचन हुए के स्थान पर सर सेम्युअल होर, को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। इस प्रकार द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की परिस्थितियाँ भारतीय समस्या के हल के अनुकूल न थीं। उनमें अनुदारवादियों
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– महात्मा गाँधी को उपस्थिति भी सम्मेलन को सफल नहीं बना सकी। महात्मा गाँधी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय स्वरूप का प्रतिपादन किया और सुरक्षा बलों व वैदेशिक मामलों पर पूर्ण नियन्त्रण सहित स्वराज्य की माँग की, लेकिन इस माँग का कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ।
यद्यपि नवीन विधान से सम्बन्धित कुछ विस्तार को बातें निश्चित की गयीं। संघीय न्यायपालिका का वांबा, संघीय विधानमण्डल का संगठन और रियासतों के अखिल भारतीय संघ के प्रवेश से सम्बन्धित कुछ बातें निश्चित की गयीं, लेकिन साम्प्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकाला जा सका। गाँधीजी ने इस समस्या को सुलझाने के लिए नेहरू रिपोर्ट के आधार पर प्रयत्न किया, किन्तु सम्मेलन में भाग लेने वाले सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा अल्पसंख्यकों को अनुचित मांगें करने के लिए प्रोत्साहित किये जाने के कारण गाँधीजी को अपने इस प्रयत्न में सफलता प्राप्त नहीं हुई।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन गोलमेज सम्मेलन की असफलता
सविनय अवज्ञा आन्दोलन – द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1 दिसम्बर, 1931 ई० को समाप्त हो गया। यह सम्मेलन पूर्णतया असफल रहा। महात्मा गाँधी, जिनके द्वारा सम्मेलन के प्रारम्भ में चहुत अधिक उत्साहपूर्ण विचार व्यक्त किये गये थे, उनके द्वारा अन्त में अध्यक्ष के प्रति धन्यवाद का प्रस्ताव प्रस्तावित करते हुए कहा गया कि “उनके और प्रधानमन्त्री के रास्ते अलग-अलग हैं।
” वस्तुतः ब्रिटिश सरकार भारतीय समस्या का हल निकालने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं थी। ब्रिटिश सरकार ने सम्मेलन में ऐसी चाल अपनायी कि आवश्यक और मूलभूत प्रश्न तो पीछे छूट गये और सारा समय मामूली बातों पर विचार करने और नवीन विवादों को जन्म देने में नष्ट कर दिया गया। इच्छा अपवा अनिच्छा से अधिकांश भारतीय नेता भी ब्रिटिश सरकार के साथ हो गये।
पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1932-34 ई०)
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– भारत में महात्मा गाँधी की अनुपस्थिति में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलिंगडन के निर्देशन में ब्रिटिश नौकरशाही ने गाँधी-इरविन समझौते का खुला उल्लंघन शुरू कर दिया। दिसम्बर, 1931 में जब महात्माजी गोलमेज सम्मेलन से भारत लौटे, उस समय स्थिति ऐसी हो गयी थी और लॉर्ड विलिंगडन का रुख इतना कठोर था कि गाँधीजी के सामने सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर से शुरू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा।
इस बार शासन का दमन चक्र बहुत ही अधिक कठोर था। लाठी प्रहार, गोली वर्षा, सम्पत्ति को जब्ती और सामूहिक जुमनि नित्व के कार्यक्रम हो गये। गाँधीजी को बन्दी बना लिया गया, कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर दिया गया और समाचार पत्रों पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिये गये। 1932 ई० के अन्त तक राजनीतिक बन्दियों की संख्या 1 लाख 20 हजार तक पहुँच गयी।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन अत्यधिक दमन के कारण आन्दोलन की शक्ति कम होती जा रही थी। सरकार ने 8 मई, 1933 ई० को गाँधीजी को रिहा कर दिया था। 19 मई, 1933 ई० को महात्मा गाँधी ने आन्दोलन 11 सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया। 14 जुलाई, 1933 ई० को जन-आन्दोलन रोक कर ‘व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ शुरू किया जो 9 माह तक चलता रहा। 7 अप्रैल, 1934 ई० को इसे भी स्थगित कर दिया गया। अब गाँधीजी के नेतृत्व पर पुनः आक्षेप हुए। कुछ दिनों बाद सरकार ने कांग्रेस पर से प्रतिबन्ध उठा लिया। 1934 ई० के बम्बई अधिवेशन में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास कर कांग्रेसियों को धारा सभाओं में प्रवेश करने की इजाजत दे दो।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन तृतीय गोलमेज सम्मेलन (17 नवम्बर, 1932 ई०)
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– गोलमेज परिषद् का तीसरा और अन्तिम अधिवेशन 17 नवम्बर, 1932 ई० में प्रारम्भ हुआ। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय कांग्रेस और इंग्लैण्ड के मजदूर दल द्वारा भाग नहीं लिया गया इसलिए इसका कोई महत्त्व नहीं है। सम्मेलन में कट्टर राजभक्तों ने भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। सम्मेलन में उन बातों को पुष्ट किया गया, जो प्रथम दो सम्मेलनों में निश्चित की गयी थी।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन साम्प्रदायिक निर्णय :
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– पूना पैक्ट – 1928 ई० में नेहरू कमेटी ने रिपोर्ट में सुझाव दिया कि शरारत भरी साम्प्रदायिक चुनाव- पद्धति को समाप्त कर दिया जाय तथा उसके स्थान पर अल्पसंख्यकों के लिए उनको जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित कर दिये जायें। ब्रिटिश सरकार ने इसे खारिज कर दिया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्पो मैकडॉनल्ड ने 1932 ई० में अपना प्रसिद्ध साम्प्रदायिक निर्णय दे दिया। जिसके अनुसार प्रान्तीय तथा केन्द्रीय विधानमण्डलों में सीटों का विभाजन साम्प्रदायिक अनुपात से करने का प्रयल किया गया। सबसे उल्लेखनीय बात यह थी कि अनुसूचित जातियों को भी भित्र सम्प्रदाय मानकर आरक्षित स्थान दिये गये। महात्मा गाँधी ने इस निर्णय के विरुद्ध आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और अन्त में पूना समझौता (Poona Pact) के अनुसार इसमें थोड़ा-सा परिवर्तर कर दिया गया। इस प्रकार गाँधी जी ने अपना आमरण अनशन समाप्त कर दिया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन 1935 ई० का अधिनियम
सविनय अवज्ञा आन्दोलन – 1935 ई० में ब्रिटिश सरकार ने एक नया अधिनियम पारित किया जिसके अनुस्वर भारत में संघात्मक शासन की व्यवस्था की गयी। साथ ही प्रान्तों को स्वतन्त्र कर दिया गया।
स्वाधीनता की ओर राष्ट्रीय आन्दोलन (1935-1941 ई०सविनय अवज्ञा आन्दोलन)
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– 1934 ई० में कांग्रेस ने माँग की थी कि भारत का संविधान बनाने के लिए बालिग मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक संविधान-सभा का गठन किया जाये। अतः 1936 ई० के एक विशेष अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित करके कांग्रेस ने 1935 ई० के भारत सरकार अधिनियम को अस्वीकृत कर दिया और कहा कि जनता को इच्छा के विरुद्ध भारत पर यह कानून लादा गया है।
कांग्रेस ने भारत सरकार अधिनियम की निन्दा तो की, किन्तु 1937 ई० में होने वाले विधान सभाओं के चुनावों में भाग लेने का फैसला कर लिया। 1937 ई० में सम्पन्न चुनावों में लगभग एक करोड़ 55 लाख लोगों ने मतदान किया। मुस्लिम लीग तथा दूसरी कई पार्टियों ने भी इन चुनावों में भाग लिया। 6 प्रान्तों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ।
3 प्रान्तों में यह सबसे बड़ी पाटी के रूप में उभरी। इन चुनावों में 482 सीटें आरक्षित थी, जिसमें मुस्लिम लोग को 108 सीटें प्राप्त हुई। मुस्लिम बहुल चार पश्चिमीतर प्रान्तों में एक सीट भी नहीं मिली। धर्म के नाम पर राष्ट्रीय आन्दोलन में फूट डालने की कोशिश करनेवाली मुस्लिम लीग का यहाँ कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन– सितम्बर, 1939 ई० में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में कांग्रेस ने सम्मिलित न होने का निर्णय किया। ब्रिटिश सरकार ने इसे स्थोकार नहीं किया, अतः कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने विरोध स्वरूप त्याग पत्र दे दिये।
1940 ई0 में महात्मा गाँधी ने व्यक्तिगत अभ्यास कार्यक्रम आयोजित किया। इसकी कीमत 6 मास के लगभग 25000 हजार व्यक्ति जेल गई।
मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की माँग (1939 ई०)
मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन, जो 1930 ई० में सम्मन्न हुआ था, में अध्यक्षीय भाषण में महान् कचि इकबाल ने कहा था कि “उत्तर पश्चिम भारत का संगठित मुस्लिम राज्य के रूप में निर्माण ही मुझे मुसलमान की अन्तिम नियति प्रतीत होती है।” 1939 में एक समिति गठित की गयी जिसने अलीगढ़ योजना तैयार कर पाकिस्तान, बंगाल, हैदराबाद, हिन्दुस्तान नामक चार पृथक राज्य स्थापित करने का सुझाव दिया।
1937 में मुस्लिम लीग की भारी पराजय से व्यधित जिन्ना ने गाँधी पर ‘हिन्दू राज्य’ स्थापित करने का आरोप लगाकर साम्प्रदायिकता को भड़काते हुए ‘द्विराष्ट्रीय सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया। अतः 22-23 मार्च, 1940 ई० को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पहली बार पृथकू ‘पाकिस्तान’ की माँग का प्रस्ताव पारित कर दिया गया, किन्तु विशेष उल्लेखनीय यह है कि प्रस्ताव में पाकिस्तान शब्द का उल्लेख नहीं था। अधिकांश मुसलमानों ने अलग राज्य बनाये जाने का विरोध किया। मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा गफ्फार खाँ (सीमान्त गांधी) जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने पाकिस्तान की मांग का समर्थन नहीं किया।
क्रिप्स मिशन (मार्च, 1942 ई०)
युद्ध के प्रारम्भिक चरण में ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों की स्थिति बिगड़ती जा रही थी। 1942 ई० में जब जापानी सेनाएँ बर्मा में भारत की सीमा तक आ पहुँचों, तो ब्रिटिश सरकार को चिन्ता हुई। ब्रिटिश सरकार ने सोचा कि जापान के सम्भावित आक्रमण से भारत की रक्षा का कार्य भारत की राजनीतिक शक्तियों के सहयोग से हो सम्भव है।
अतः प्रधानमन्त्री चर्चिल ने राजनीतिक गतिरोध दूर करने के लिए मार्च, 1942 ई० में सर स्टेफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा। मजदूर दलीय नेता सर स्टेफर्ड क्रिप्स इसके पहले सोवियत रूस के साथ सन्धि करने में सफल रहे थे। वे इसके पहले दो बार भारत आ चुके थे और भारत के अनेक राजनीतिक नेताओं, विशेषतया पं० नेहरू से, उनका बहुत अच्छा परिचय था, अतः भारतीयों को उनसे बड़ी आशा थी।
क्रिप्स को भारत भेजने के कारण-क्रिप्र को भारत भेजने के उत्तरदायी, प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
1. ब्रिटेन पर मित्र-राष्ट्रों का दबाव-
युद्ध की स्थिति गम्भीर होने के पूर्व ही राष्ट्रपति रूजवेल्ट, च्यांग काई रोक और ब्रिटेन के दूसरे सहयोगियों ने ब्रिटिश सरकार से भारत के साथ समझौता करने का आग्रह शुरू कर दिया था। पर्ल हार्बर पर जापान के आक्रमण के बाद इस दबाव में बहुत वृद्धि हो गयी और ब्रिटेन इस दवाव के सामने झुकने के लिए बाध्य हो गया।
2. युद्ध को विगड़ती हुई स्थिति और भारतीय संकट-
क्रिया कमीशन भारत भेजे जाने का तात्कालिक और सबसे प्रमुख कारण यही था। मि० स्टेफर्ड क्रिप्स 22 मार्च, 1942. ई० को भारत आये और अपने 20 दिन के भारत निवास में कॉग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, दलित पगों, उदारवादियों और देशी नरेशों के प्रतिनिधियों में मिले। इसके बाद उन्होंने भारत के राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किये, जो ‘क्रिप्स प्रस्ताव’ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
3. गाँधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस का दृढ़ दृष्टिकोण –
गाँधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस का दृष्टिकोण यह था कि भारत युद्ध प्रयत्नों में उसी समय सहयोग दे सकता है, जबकि ब्रिटिश सरकार अपने उद्देश्यों, स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र को कम से कम मुद्ध के बाद भारत में लागू करने की घोषणा करे। व्यक्तिगत सत्याग्रह का मार्ग अपनाकर यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि ब्रिटिश शासन के भारत विरोधी रवैये का विरोध करना कांग्रेस अपना कर्तव्य समझती है, अतः युद्ध की बिगड़ती हुई स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने वैधानिक गतिरोध दूर करने के लिए नयीन प्रस्ताव प्रस्तुत करना आवश्यक समझा।
4. ब्रिटिश जनमत-
इंग्लैण्ड के अनेक प्रभावशाली व्यक्तियों ने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि भारत को राजनीतिक समस्या का समाधान करने के लिए सन्तोषजनक कदम उठाया जाना चाहिए।
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क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव
- (1) सम्राट की सरकार ने भारत में शीघ्र स्वशासन के विकास के लिए निश्चित कदम उठाने का निश्चय किया है।
- (2) युद्ध के उपरान्त भारत में एक संविधान निर्मात्री सभा बुलायी जायेगी जिसमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतें दोनों के प्रतिनिधि होंगे।
- (3) नवीन संविधान को ब्रिटिश सरकार निम्नलिखित शर्तों के अधीन स्वीकार कर लेगी और उसे व्यावहारिक रूप देगी : (1) पहली शर्त यह थी कि जो प्रान्त या देशी रियासतें नये संबिधान को स्वीकार न करें, उन्हें अधिकार होगा कि वे अपनी वर्तमान संवैधानिक स्थिति को बनाये रखें। बाद में यदि वे चाहें तो संघ में सम्मिलित हो सकते हैं। (ii) संविधान की इस स्वीकृति के उपरान्त भारतीय संविधान सभा और ब्रिटिश सरकार के बीच एक सन्धि होगी, जिसमें अंग्रेजों से भारतीयों को उत्तरदायित्व हस्तान्तरित करने की व्यवस्था को जायेगी।
- (4) प्रस्ताव में कहा गया कि भारत के सम्मुख जो संकट उपस्थित है उसके मध्यम में तथा जब तक नवीन संविधान कार्यान्वित न हो तब तक सम्राट की सरकार भारत की रक्षा, निर्देशन तथा नियन्त्रण का उत्तरदायित्व अपने हाथ में रखेगी। भारतीय जनता के सहयोग से देश की सम्पूर्ण सैनिक, नैतिक तथा आर्थिक साधनों को संगठित करने की जिम्मेदारी भारत सरकार पर होनी थी।
- (5) क्रिप्स प्रस्ताव के अन्त में कहा गया कि ” सम्राट की सरकार की इच्छा है कि भारतीय जनता के विविध वगों के नेता अपने देश, ब्रिटिस राष्ट्रमण्डल तथा मित्रराष्ट्रों के विचार-विमर्श में प्रभावोत्पादक ढंग से भाग लें और इस प्रकार एक महान कार्य के सम्पादन में वे रचनात्मक तथा सक्रिय सहयोग प्रदान कर सकेंगे जो भारत की स्वाधीनता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।”
अन्त में भारत के सभी राजनीतिक दलों द्वारा क्रिप्स प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया।